यह जीवन न जाने क्यों पाया ?
यहाँ गहरे घावों की है साया
विकट विकराल है परिस्थियाँ
साथ छोड़ सकता है परछाईया
इस जीवन में पल पल
बहुत है खोया बहुत है पाया
फिर सोंचता रहता हूँ
मथता रहता हूँ
समेव अग्नि जलता हूँ
अंतिम राख मिटटी में है काया
यह जीवन न जाने क्यों पाया ?
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**** मिलन कांत ****
****९०९८८८९९०४*****
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