**घनाक्षरी** vardik chhand
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नष्ट झिनकरा संगी, रुखराई वन बन
जीवजन्तु कलपत, सुनले पुकार रे !
प्राण इही जान इही, सुद्ध हवा देत इही
झिन काट रुखराई, अउ जंगल खार रे !
कल-पत हे चिराई, घर द्वार टूटे सबो
संसो-छाए लईका के, आंसु के बयार रे!
जीव के अधार इही, नानपन पढ़े सबो
आज सबो पढ़लिख, होगे हे गवार रे!
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पर घर नास कर, छाबे जब घर संगी
काहापाबे सुखसांती, बिछा जही प्यार रे!
अपन बनौकी बर, दुख तैहा ओला देहे
भोग-लोभ करकर , बिगा-ड़े संसार रे
सबोके महत्व हे जी, खाद्य श्रृंखला जाल म
छोटे नोहै कहुं जीव, करले बिचार रे !
नदि नाला जंगल ले, उपजे गांव गांव ह
रुखराई जीवजन्तु, आज तै सवार रे !
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मिलन मलरिहा
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