मंगलवार, 7 जुलाई 2015

****** बेटी *******


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अपनो से जूदा होकर
नव परिवार सजाती है
वह बेटी ही तो है जहां मे
जगत को चलना सिखाती है
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रुकी तो धरा नर्क है
चली तो यहाँ स्वर्ग है
बच्चे, बुढ़ो का है आधार
सेवा पर टीकी है संसार
सबकी सहती न अकड़ती
दुखो का भार उठाती है
वह बेटी ही तो है जहां में
जगत को चलना सिखाती है
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वह रुठी तो जग मुरझाई
हंसी अगर सब हरियाई
सब मान उसी की दम पर
बेटो ने आज जो पायी है
जब ठुकराया इन बेटो ने
बुजूर्गो को सम्हालती आयी है
वह बेटी ही तो है जहां में
जगत को चलना सिखाती है
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बेटो को जड़ मान लिया है
दिन दिन बेटो का चाह किया है
फिर भी अनचाही डालो में
इन बेटो की खेत बागो में
नन्ही कलि खिल जाती है
बिन खाद वह बढ़ आती है
वह बेटी ही तो है जहां में
जगत को चलना सिखाती है
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मान, सबकी की शान वही
घर घर की पहचान वही
फिर क्यो, तोड़ मरोड़ देते
बागो की सुन्दर फूल वही
नीत न त्यागो बगीया से
सभी फूल सूख जायेगा
लगता वह दिन दूर नही
तीसरा युद्ध पनप आयेगा
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समेटो बिखरती जा रही है
अमुल्य मूरझाती पुष्पडाल
सूने आंगन को चमकाती है
वह बेटी ही तो है जहां में
जगत को चलना सिखाती है
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मिलन मलरिहा

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