गुरुवार, 4 जून 2015

फिर तू एक गॉव बसाएगा

फिर तू एक गॉव बसाएगा
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राहें निकलती है उस ओर
गॉव खेत के अंतिम छोर 
नीत आता सूरज गॉव से
वह  भी तो चला है जाता
शहरो की ओर ही भागता
अब जगह जगह है शहरी
सब जीव हो गए बहरी
थककर तू कुछ न पायेगा
नीव का इट गिर जायेगा
फिर तू एक गॉव बसाएगा
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वे पंछी गाते गीत वहां की
जिसने सीखा यहाँ चलना
वह भी दिन दूर नहीं
तू रो रो कर पछतायेगा
जिस दिन जलती देह लेकर
तू मातृभूमि की छाव आयेगा
रगड़ रगड़ मिटटी में ये तन
तालाबों में डुबकी लगाएगा
एकदिन चकचौंध नकारकर
फिर तू एक गॉव बसाएगा....
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बदलते परिवेष नवधरा 
धूप ही धूप से है भरा
तपती जलती वसुन्धरा
हरे-भरे दूब घास मिलेंगे
बागों में बस पुष्प खिलेंगे
नवराहे निर्माण सजाकर
गांव-खेतों से वृक्ष हटाकर
गगनचुम्बी मंजील गढ़कर
स्वमेव अनल दहलाएगा
शाँत मधुबन बरगद छाँव
मथ गुँजता चिखता पुकारेगा
फुल भँवरो की धुनश्रोता
फिर तू एक गॉव बसाएगा....
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-मिलन मलरिहा



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