रविवार, 25 अप्रैल 2021

coluor drwaving मिलन मलरिहा

 

Milan malariha art

गुड़ वाली चाय

    “नान, आज चाय पीने नहीं आई ? आओ दौड़कर। नहीं तो चाय ठण्डी हो जाएगी।” 
    यह स्नेहिल आवाज़ थी मनमतिया फुआ की। वह चाय के लिए जो मुझे हर दिन बुलाती थी। आज भी बड़े स्नेह से बुला रही थी। प्रत्युत्तर में मैंने भी उसे शीघ्र पहुँचने का संकेत दे दिया था। 
    जब मैं दस वर्ष की थी तब से मुझे मनमतिया फुआ की गुड़ वाली चाय बहुत भाती थी। अहहहह ! यार क्या बोलूँ ! उसकी संजीवनी औषधि के माफिक झाल-मीठी ख़ुशबूदार देशी गुड़ की चाय की दीवानी जो मैं बन चुकी थी। फुआ की चाय के नाम से एकबारगी मेरे मुँह से लार भी तो टपक पड़ती थी। उसे चुस्की लेते बड़े मजे से पीती थी मैं।
    मुझे ही क्या गाँव में न जाने कितने लोगों को शाम को मनमतिया फुआ की चाय पीने की आदत थी। राधा जो कि एक आँख से अंधी थी। सरजू की माँ जिसके घर में कभी चाय नहीं बनती थी। बगल की गौरी और मेरी भी दिनचर्या में शामिल थी फुआ की चाय।
    फुआ का घर मिट्टी का था। ऊपर में छप्पर और एक छोटा सा आँगन, जहाँ बाल्टी में पानी। वहीं पर दो चार काई लगी ईंटें। सामने में ओटा था जिस पर लोग बैठते थे। खाना खाने के लिए काँसे की दो थालियों के साथ स्टेनलेस स्टील के गिलास और चार कप-कटोरी। इतनी ही चीज़ें मुझे दिखती थीं फुआ के घर में। आर्थिक उपार्जन के नाम पर दो बीघा ज़मीन थी, जिसे अधिया में फ़सल लगाने को किसी को दे देती थी। वह किसान भी फुआ को अनाज देने में मनमानी करता था। बस कुछ दे जाता था।
    माँ बताती मनमतिया फुआ दीनबंधु की पहली पत्नी थी। फुआ के कोई बाल- बच्चे नहीं हुए। जिसके कारण दीनबंधु ने दूसरी शादी कर ली। शहर में जाकर बस गए। तब से फुआ की यही एकाकी ज़िन्दगी थी, जिसे वह हर शाम भरा-पूरा करती थी।
    शाम होते ही फुआ के दरवाजे के ओटा पर बहुत लोग आ बैठते थे। जैसे किसी स्वादिष्ट सामान विक्रेता ठेले वाले के पास शाम होते ही भीड़ हो जाती है। ठीक उसी तरह फुआ के पास भी। लेकिन दोनों में अंतर था। ठेला वाला पैसा लेता था और फुआ  बैठकर चाय पीने वालों से बदले में कुछ भी नहीं लेती थी।       
    शाम होते ही फुआ की गुड़, तुलसी, अदरक वाली सुगंधित चाय बनती थी, जिसे बैठने वाले सभी पीते थे। मैं कभी खेल में व्यस्त होती तो फुआ जोर से आवाज देती थी "नान, आज चाय पीने नहीं आई ?" और मैं दौड़कर चली जाती थी स्वादिष्ट चाय पीने। बदले में फुआ छोटा-मोटा काज भी नहीं कराती थी। यहाँ तक कि गर्म चाय को कटोरी में डालकर देती थी मुझे पीने के लिए। और कटोरी भी नहीं धुलवाती थी फुआ। रोज चाय की व्यवस्था के लिए तुलसी के पौधे से तुलसी के पत्ते और अदरक के पौधे से अदरक फुआ को अपनी बाड़ी से मिल जाते थे। गुड़ का खर्च उठाने में और गैरों को चाय पिलाने में फुआ के चेहरे में कोई शिकन नहीं होती थी ।
    फुआ का हमारे परिवार से न जाने कैसा मेल था। जबकि वह मेरे पापा की सगी बहन भी नहीं थी। फिर भी हम सबको ऐसा लगता था कि अगर हमारे परिवार में विपत्ति आएगी तो सबसे पहले फुआ ही दौड़ी आएगी। ऐसी आत्मीयतापूर्ण व्यवहार ने मुझे बाँध लिया था। एक ऐसा रिश्ता बन गया था जो कभी टूट नहीं सकता था। इतना विश्वास भी कायम हो गया था जो कभी शक में बदल नहीं सकता था। 
    एक घटना मुझे याद है। गाँव में काक मैथुन कोई देख ले तो बहुत अशुभ माना जाता था और उस अशुभ की काट करने के लिए झूठ-मूठ की ख़बर देनी होती थी। हाँ झूठ-मूठ की ख़बर कि जो देखा है उसकी मृत्यु हो गई। इस झूठी ख़बर को सुनकर कोई सच्चा आँसू बहा दे तो दोष कट जाता है ऐसी मान्यता गाँव में प्रचलित थी। एक बार मेरी दीदी ललिता ने काक मैथुन देख लिया था। मेरी माँ भयभीत और चिन्तित थी कि दोष को कैसे काटा जाय ? तब यह निर्णय लिया गया कि मनमतिया फुआ को यह झूठी ख़बर दे दी जाय कि ललिता की मृत्यु हो गई है। जैसे ही यह ख़बर फुआ ने सुनी। दहाड़े मार-मार कर रोई। सच्चा आँसू बहा दिया। लगता था कि दीदी ललिता अपनी खुद की सचमुच की बेटी हो। हालांकि योजना के मुताबिक काक मैथुन दोष कट गया। पर फुआ का एकाएक भावुक हो जाना, बहुत समय तक शोकमग्न रहना, हम लोगों के परिवार के प्रति उसके बहुत गहरे अपनापन और समर्पण को प्रमाणित करता था।
    ऐसे ही एक दफा घर में अचानक माँ के कराहने की आवाज़ उसके जोड़-जोड़ से आ रही थी। मैं दौड़कर गई। मैंने माँ से पूछा क्या हुआ ? माँ के पेट में इतना तेज दर्द था कि मैं उसके लिए क्या लाऊँ या किसे बुलाऊँ इतना भी वह मुँह से नहीं कह पा रही थी। उन दिनों का मेरा बालमन बहुत भयभीत था। मुझे लग रहा था यह दर्द कुछ देर और रहा तो मेरी माँ के तन से प्राण पखेरू उड़ जाएंगे। मैं दौड़कर मनमतिया फुआ को बुलाकर ले आई। फुआ ने रसोईघर से एक काँसा का लोटा लिया। गोबर का एक दीया बनाया। तेल-बाती से एक दीप जला दिया और नाभि में उसी  दीये को रखकर लोटा को पेट पर उल्टा खपा दिया। जब तक दर्द रहा लोटा पेट से चिपका रहा। जैसे ही दर्द खत्म हुआ लोटा स्वतः ही पेट से निकल गया। मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इतना तेज दर्द लोटा चिपकाने मात्र से कैसे खत्म हो गया ! मैं फुआ से बोली, "वाह यह तो कमाल है फुआ, आपके हाथों में तो जादुई हुनर है। आप तो डॉक्टर हो।" उत्तर में फुआ ने मुस्कुरा दिया और मेरा माथा चूम लिया।
    फुआ का पतला छरहरा बदन उस पर गुलाबी साड़ी खूब सुन्दर जँच रही थी। "ओ फुआ, आज सुबह-सुबह कहाँ जाने के लिए तैयार हो ?" मैंने हँसते हुए पूछा।
    "अरी, कल तिल संक्रांत है। तो आज तुम्हारी माँ ने तिल के लड्डू बनाने के लिए मुझे बुलाया है।" फुआ भी हँसते हुए बोली। लड्डू बनाने में कितने तार का पाग रहेगा, बड़ी तिलौरी में उड़द की पीठी में कितना फेंट होगा,  सब फुआ को पता था। जब कभी लडडू या बड़ी तिलौरी बनाना हो फुआ छह बजे स्नान कर घर आ जाती थी। बनाते-बनाते बारह बज जाते थे। फिर तो दोपहर का भोजन फुआ हम लोगों के घर से खाकर ही जाती थी।
    आज फुआ के ओटा में कुछ अधिक ही भीड़ थी। कल कार्तिक पूर्णिमा के दिन नदी स्नान की तैयारी हो रही थी। फुआ की आदत तो थी ही अच्छी। भोर के समय ठीक घड़ी में चार बजा। फुआ उठी। फटाफट सबके घर का साँकल बजा बजाकर सबको उठाया। फिर सबको एकत्रित कर नदी  स्नान के लिए ले चली। मुझे एक भी वह व्यक्ति याद नहीं जिससे फुआ की नहीं बनती हो। अर्थात मनमतिया फुआ बहुत भली थी। सबके लिये अच्छा सोचती थी और अच्छा करती थी। उसे मैं समाज की एक जागरूक और समदर्शी महिला कहूँ तो गलत नहीं कहूंगी। बेशक उसकी चेतना जागी हुई थी। सबको समान दृष्टि से देखती थी। उसमें निश्छलता का गुण और सेवा का भाव था।
    एक बार गाँव की सारी फ़सलें मुरझाने लगीं। बारिश नहीं हो रही थी। सभी किसान चिन्तित थे। मैं भी अपनी माँ के साथ अपने खेतों की फ़सल को मुरझाते देख चिन्तित थी। फुआ ने तरकीब निकाली। एक मेंढक और एक मेंढकी लिया। दो टोले वालों में से एक को मेंढक और दूसरे को मेंढकी दे दी। खूब आनंद से मेंढक-मेंढकी का ब्याह रचाया। हम सब बच्चों ने भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल बंद किया। इस ब्याह उत्सव में शामिल हुए। साथ ही साथ ऊपर आसमान को देखते। इतना साफ आसमान, इतनी तेज धूप क्या सचमुच में बारिश होगी ? लेकिन ब्याह खत्म होते-होते न जाने कहाँ से काले-काले बादल घुमड़ पड़े और खूब झमाझम बारिश हुई।
    एक दिन फुआ के घर के सामने घोड़ा बँधा था। मुझे बड़ी उत्सुकता हुई। दौड़कर अंदर गई देखा एक पुरुष फुआ से ऊँची आवाज़ में झगड़ने जैसी बातें कर रहा था। वह बार-बार कहता था कि सोने का बाजूबंद कहाँ है ? बाजूबंद मेरे पास नहीं है यह बात फुआ बार बार दुहरा रही थी। अब तो वह पुरुष फुआ पर हाथ उठाने लगा। रुदन की आवाज़ आने लगी। मैं दौड़कर गई। अपनी माँ को बुला लाई। दोनों का झगड़ा शान्त करवाया। वह पुरुष कौन है मेरे पूछने पर मेरी माँ ने ही बताया कि वही दीनबंधु  हैं। यानी फुआ के पति।
    इधर फुआ बीमार रहने लगी थी। उधर बेचारी गरीब राधा के बेटे को गंभीर बीमारी लग गई थी। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। बहुत दिनों तक राधा नहीं दिखी। पता चला कि उसके बेटे की अंतिम स्थिति है। पैसे के अभाव में आखिरी साँसें गिन रहा है। मेरा बालमन दु:ख देखकर भाव विह्वल हो रहा था। इधर दीनबंधु का आना-जाना बढ़ गया। साथ ही लड़ाई-झगड़े भी बढ़ गए। लड़ाई की जड़ सोने का बाजूबंद था। बेचारी फुआ आए दिन पति की मार खाती थी।
    आज दिनबंधु की आँखें लाल थीं। इतनी डरावनी आँखें जैसे वे इंसान नहीं शैतान हों। मुझे बहुत डर लग रहा था। फुआ की चीख सुनाई दे रही थी। मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि फुआ को मैं बचाऊँ। आँखों से बेबसी के अविरल अश्रु बह रहे थे। मैंने हिम्मत बटोरी। दौड़कर एक पत्थर उठा लाई। दीनबंधु को मारना चाहा। पर पत्थर मेरे ही पैर पर गिरकर उसने मुझे और रुलाया। शाम को पूरे गाँव में ख़बर फैली कि फुआ अब नहीं रही। 
    मैं इस घटना से हतप्रभ थी। मेरे जिस्म में काटो तो खून नहीं। फुआ के प्राण जाने के पीछे वही दीनबंधु थे। आह, उन्होंने यह घोर अन्याय क्यों कर दिया। इतनी निर्दयता तो कोई लाख दुश्मन पर भी नहीं दिखलाये। अपनी पहली पत्नी पर सद्भावना नहीं रखते थे तभी फुआ पत्नी प्रताड़ना की भेंट चढ़ गई।
    वह पत्थरदिल क्या पिघलता। उसे क्या फ़र्क पड़ता। फ़र्क को गाँव के फुआ के परम हितैषियों को पड़ा था। सारे नजदीकी मुहल्ले वाले दु:ख की घड़ी में इकट्ठे हो गए थे। सरजू की माँ गौरी, मीरा और दूसरी महिलाएँ सभी रो रही थीं साथ में मैं भी। सफेद कपड़ों में आँखें मूँदे फुआ अंतिम यात्रा के लिए सजी थी। तभी राधा ने बिलखते हुए फुआ के पैर पकड़ लिये। विलाप करने लगी, “मेरे बेटे की जान बचाने वाली ऐ फुआ तू कहाँ चली गई। अपना सोने का बाजूबंद मुझे दे दिया। मैं कैसे तेरा कर्ज उतारूँ … !!" 
    बहरहाल यह अनहोनी वाली होनी थी। सबको ज्ञात था कि फुआ के हृदय में बच्चों के प्रति ममता का सागर उमड़ता था और बड़ों के प्रति सद्भाव की हिलोरें। उसकी गुड़ वाली चाय को मैं क्या कोई भी कभी भूल नहीं सकेगा। जब-जब शाम आएगी याद आएगी। मैं तो मानती हूँ मनमतिया फुआ में महान् त्याग की भावना थी। दुनिया सदैव उसकी अच्छाइयों का गान करेगी। अपने सद्चरित्र और संस्कार में अमर रहेगी वह।
                   

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